सोमवार, 24 जनवरी 2011

हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा

हरी धरती के चाहने वाले हरिद्वार के रहने वाले हरीश जी के जज्बात से रूबरू होइए. इनके सवालात सार्वभौमिक है पर्यावरण का बचना इनके सवालो के जवाबो में है 

 दोस्तो अपने चारों ओर नज़र करता हूँ तो पाता हूँ की कंकरीटी सभ्यता का विस्तार निगल लेने को आतुर हैं हमे दिन-ब- दिन, विकास की बहुत बड़ी कीमत हैं ये, ओर इसके लिए मैं खुद को ज़िम्मेदार मानता हूँ शायद आप भी मुझसे सहमत हों




हे मनुज कुछ सोच तो तू क्या धरा को दे रहा
प्रकृति मैं विष घोल कर तू प्राण वायु ले रहा!!

नग्न से दिखते ये जंगल, माफ़ तो क्योंकर करेंगे
वो जो उजड़े हैं जड़ों से, घौसले कैसे बसेंगे,
कर औरोको मझधार मैं, अपनी ही कश्ती खे रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा!!

जंगलों को काट कर जो, बस्तियाँ तूने बसाई
वैभवका हर समान था, घरमैं मगर खुशियाँ नआई
तेरे ही तो पाप हैं पगले, तू जिनको धो रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा

इन धधकती चीमनियों के, दंश से कैसे बचोगे
बच भी गये गर मौत से पर, पीडियों विकृत रहोगे!!
दोष किसको देगा जब, खुद ही तू काँटे बो रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा!!

अब ना चेते तो धरा की, परतों मैं खोदे जाओगे
डायनासोरों की तरह, क़िस्सों मैं पाए जाओगे!!
यम तेरे सर पर खड़ा, तू हैं की ताने सो रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा!!

वक्त हैं अबभी संभल, मततोड़ प्रकृति संतुलन को
जो भी जैसा हैं वही, रहने दे इस पर्यावरण को
वरना फिर भगवान भी, तुझको बचाने से रहा!!
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा
प्रकृति मैं विष घोल कर तू प्राण वायु ले रहा!!

5 टिप्‍पणियां:

  1. हरीश जी ने गहरे प्रश्न उठाये है
    उनके इस प्रयास में सहभागी हैं आलोकिता बिना उनके हरीश जी हरिद्वार से हरी धरती तक ना पहुच पाते
    आप लोगो क़ा शुक्रिया

    शुभ आकांक्षी
    पवन कुमार मिश्रा

    --

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  2. पवन भाई, इस लोक सचेतक रचना के लिए आपकी जितनी तारीफ की जाए कम है।

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    क्‍या आपको मालूम है कि हिन्‍दी के सर्वाधिक चर्चित ब्‍लॉग कौन से हैं?

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  3. सड़कों के किनारे लगे बल्ब उजाला तो देजाते
    मग़र वह कटते हुए दरख़्त भी भूले नहीं जाते
    खुबसूरत रचना सन्देश देती हुई , बधाई

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  4. kash ki yah rachna sirf rachna na rah jaye is baat ko gahrai se samajhna jaruri hai.

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